Saturday, March 3, 2012

विभाजित



समुन्दर की गीली रेत सी तुम
आ जाती हो
सम्पूर्ण मेरी बांह में
फिर सूख जाती है
धीरे धीरे
तुम्हारे प्रेम की नमी
तुम होना चाहती हो दूर
मेरा होने के भाव से
फिर सूखकर फिसलने लगती हो
मेरी बाहों से
मै ताकता रहता हूँ
रोकता हूँ
पर नहीं संभलती तुम
बस चली जाती हो
कहीं और ,,
किसी और से मिलने .

क्यूँ ,,,
बताओ
क्यूँ,,
सूख गई
तुम्हारे प्रेम की नमी
क्यूँ,,,,,,,,

मै तनहा रह गया
क्या इसीलिए रहती थी
तुम मेरी बाहं में तुम
की फिसल जाओ
किसी दिन
किसी और के लिए
और कह दो सख्त अंदाज में
की ''अजीत''
तुम्हारे नसीब में नहीं मै
जाओ , विरक्त ही रहो दुनिया में
मै बस तुम्हारी नहीं ,,

तो शुबह ''
बताओ
जब यही होना था
हमारे रिश्ते का ..
तो अब तक रिश्ता
निभाया क्यूँ था
मेरी हुई क्यूँ थी
मुझे अपना बनाया क्यूँ था
क्यूँ हमारे नाम जोड़कर
आज मुझे
विभाजित कर दिया
बताओ शुबह''
बस बता दो मुझे,,,,,,,,,,, ''अजीत त्रिपाठी''

Sunday, February 26, 2012

शुभ विवाह



स्वतंत्र
स्वतंत्र होना चाहती हूँ
तुमसे
और तुम्हारे इस भाव से
की सिर्फ तुम्हारी हूँ
मेरा भी जीवन है
अपनी सोच है
अपनी इक्षाएं हैं
नहीं जी सकती मै
सिर्फ इस से की ,,,
सिर्फ तुम्हारी रहूँ

मुझे भी चाहिए
स्वतंत्रता
इस बात की
की जी सकूँ
जैसे जहाँ चाहूँ
घूम सकूँ
कहीं भी
किसी के भी साथ
ये अधिकार है मेरा ..

पर सुना नहीं तुमने
मै कहना चाहता था
की स्वतंत्रता ,,
सिर्फ स्वतंत्र होने का भाव नहीं
वरन जिम्मेदारी है
की ना हो किसी को द्वेष ,,
और ये कहना मेरा की
सिर्फ मेरी रहो
गलत भी नहीं
हर व्यक्ति चाहता है
की पूरा रहे वो
और तुम चली गई तो
मै तो अधुरा रह जाऊँगा मै ,,,

पर नहीं मानी तुम
मुझे अलग कर खुद से
तुमने चुना
स्वातंत्र्य को
जैसा की तुम चाहती थी
और कुछ दिनों में
तुमने समझा भी दिया मुझे
की है
तुम्हारे लिए
स्वंत्र होने का मतलब
मुझे यूँ ही अकेला छोड़कर
किसी और के साथ करना
खुद का
शुभ विवाह ,,,,,,,,,,,, ''अजीत त्रिपाठी ''

Monday, February 13, 2012

अंतिम प्रणाम


जब की नहीं बचा है
हमारे बीच
तुम्हे होने लगी है
परेशानी
मेरी बात से
मेरे होने से

तो क्या रह जाता है
औचित्य
मेरे होने का
आखिर
तुम्हारे सिवा
कुछ है भी तो नहीं
मेरे पास
और जो था
वो छोड़ चूका हूँ मै
तुम्हारे लिए
बहुत पहले

तो बस
और नहीं
इस
नीरस,,,
निर्वात,,
जिंदगी का साथ
तो जा रहा हूँ
आज
सब छोड़कर
बस स्वीकार करो
मेरा
अंतिम प्रणाम

Friday, August 12, 2011

कल शाम से ही


कल शाम से ही
झगड़ रही हो
की क्या सोचता रहता हूँ
तुम्हारे सिवा
ऐसे ही
अकेले मैं बैठकर
और मै थक गया हूँ
बताते बताते
की कुछ नहीं
तुम्हारे सिवा
समझा करो
और क्या है
जिसे सीने से लगाकर
ख़ुशी की तरह
दर्द में भी हंसने की वजह जैसा
समझ सकूँ मै
तुम्हारे सिवा

देखो
सुन लो
जो लड़ रही हो ना इस तरह शाम से ही
तो कल रात
ख्वाब में भी नहीं आई तुम
वजह तुम ही हो
,,
मैंने तो देखा है
अपने अंतर्मन में
हमेशा
तुम्हे ही
मुस्कुराते हुए
तो
तुम ही बताओ
कैसे आओगी
मेरे ख़्वाबों में
जबकि तुम
कल शाम से ही
झगड़ रही हो ,,,,,,, '' अजीत त्रिपाठी ''

Tuesday, August 9, 2011

मै अजीत त्रिपाठी



कर्म विहीन ,,
कर्तव्य विहीन
नितांत एकांत में
ढूँढता हूँ
प्रतिउत्तर
एक अवांछित प्रश्न का
की कौन हूँ मै

जबकि पढ़ लिए वेड और पुराण
गीता और कुरआन भी
सभी ने बताया भी है
की ''मै'' कुछ नहीं
एक भ्रम मात्र है
होने का
यहाँ तो चराचर में
सभी हैं प्रायोजित
उस परमसत्ता से
किसी एक
सार्थक कर्म के लिए
किन्तु इस बात से भी
संतुष्ट नहीं हूँ
मै ''अजीत त्रिपाठी

ढूँढता हूँ
उत्तर
की प्रयोजन क्या है
मेरे होने का
और हर बार
हार जाता हूँ
उस परम सत्ता से
जो अनकहे ही
सुना जाती है
की '' मै '' को ढूँढना
मेरा प्रयोजन नहीं ,,,,,,,,,,,,,,,,,,, ''अजीत त्रिपाठी ''

Wednesday, July 6, 2011

अजीत'' मेरा होते हुए भी

लौट आया हूँ
एक अरसे बाद
उसी मकान में
जहाँ तुमने कह दिया था
की अब बस
बहुत हुआ
नहीं होगा
वैसा जैसा
चाहते हो तुम

और मै नादान
मान बैठा तुम्हारी
ये बात भी
की नहीं मिलोगी

तुम्हे मनाने का
अंतिम प्रयास भी
ना हुआ मुझसे
बस चला गया
और चलता रहा एक अरसे तक

और आज आया हूँ तो
सदी से सूनी पड़ी
दीवारें चीखने लगी हैं
मन आहत हुआ जा रहा है
इतने चीत्कार
कब मैंने छोड़े यहाँ
जो मुझे इस तरह से चिड़ा रहे हैं

की अचानक
सड़े दरवाजे से
झाँक उठा एक ख़त
जाने किसने भेजा होगा
दरवाजा खोलने को हुआ
की
समूचा गिर पड़ा
खवाबों के आशियाने सा

जाने कितने और ख़त थे
तुम्हारी खुशबू से भरे हुए
पड़े हुए सूने आँगन में
जहाँ बरसों तक
कोई आया ही ना था

बूढा डाकिया डाल जाता था
हर रोज तुम्हारा ख़त
जिसमे होता था
मान मनुहार
की लौट आऊं मै
तुम्हारी बाहों में
खेलने को तुम्हारे बालों से
भरने को तुम्हारा दामन
खुशियों से

और मै तो
वहां था ही नहीं

अचानक ही आँख भर उठी है
देखो
तुमने ही किया था मुझे
ऐसा
की तुम्हारी हर बात मान जाया करता था
उस अंतिम बार में
तुमने ही तो कहा था
की अब और नहीं तुम्हारा साथ
फिर क्या करता मै
उस जगह ,, जहाँ होकर ,,
तुम मेरी नहीं हो सकती
इस से अच्छा तो एकांत ही है

सुनो
अगर तुम्हे मान ही जाना था
तो
कर देती बस एक इशारा
उसी दिन
जब बड़ी देर तक रोते हुए
निकला था मै
इस जगह से
जहाँ मै आज खड़ा हूँ
रोते हुए
तुम्हारे उन खतों के साथ
जो आज
मेरे पास होकर भी
लग रहे हैं
की
ये मुझ तक पहुंचे ही नहीं
जैसे नहीं पहुंचा
तुम्हारा प्रेम मुझ तक
मेरा होते हुए भी ,,,,,,,,,,,,, ''अजीत त्रिपाठी '''

Tuesday, July 5, 2011

नव श्रृष्टि



अन्धकार
निरंतर नहीं है
वस्तुतः है ये
सिर्फ एक बिम्ब
जो बन गया है
रौशनी के
पलक में छुपते ही
हटना ही इसका
एकमात्र विकल्प है
बस करना है
तुम्हे स्वयं पर विश्वास
की हर स्वाश के साथ
ये अन्धकार कम होगा
अन्यथा
तुम्हारी साँसों की गर्मी
जलाकर इसे
दिव्य ज्योति सी बनेगी

बस रखना है तुम्हे विस्वास
की
तुम्हारी सामर्थ्य
तुम्हारा मनोबल
तुम्हारा पुरुषार्थ
तुम्हारा ध्यान
सर्वेष्ठ को पाने का
सर्वोत्तम साध्य है

बस इसी धेय से
आगे बढ़ मानव
नव श्रृष्टि
उजालों के सागर के साथ
इन्तजार में खड़ी है '' अजीत त्रिपाठी ''